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NEW DELHI: भारत से पहले 2022 में इंडोनेशिया ने 374 करोड़ रुपए खर्च कर G20 समिट की मेजबानी की थी। समिट के आखिरी दिन जब घोषणा पत्र जारी करने की बात आई तो रूस और अमेरिका में यूक्रेन वॉर के जिक्र को लेकर आपस में ठन गई। समिट को फेल होने से बचाने के लिए इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने डिप्लोमेसी का सहारा लिया।
उन्होंने रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से मुलाकात की। जोको विडोडो ने लावरोव को घोषणा पत्र जारी होने से पहले ही वापस रूस चले जाने के लिए राजी कर लिया। अमेरिका और पश्चिमी देशों के मन मुताबिक घोषणा पत्र में यूक्रेन में जंग खत्म करने की मांग की गई।
हालांकि उसके अंत में ये हिस्सा जुड़वाया गया कि इस घोषणा पत्र से चीन और रूस सहमत नहीं हैं। 10 महीने G20 समिट होस्ट कर रहे भारत के सामने भी यही चुनौती थी, जिसे देश ने को पार कर लिया है।
सबसे पहले जानिए कैसे बना G20 संगठन…
2008 में आया आर्थिक संकट (फाइनेंशियल क्राइसिस) पूरी दुनिया को याद है। इससे ठीक 11 साल पहले 1997 में एशिया में भी एक आर्थिक संकट आया था। इसे एशियन फाइनेंशियल क्राइसिस के नाम से जाना जाता है। ये संकट थाईलैंड से शुरू होकर एशिया के दूसरे देशों में भी फैल गया।
मंदी की वजह से आसियान देशों पर उनकी GDP की तुलना में 167% तक का कर्ज बढ़ गया। भारी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए। क्राइसिस के शुरुआती 6 महीनों में ही इंडोनेशिया की करेंसी की कीमत 80% और थाईलैंड की करेंसी की कीमत डॉलर की तुलना में 50% तक गिर गई।
इसका असर विकसित देशों पर न पड़े, इसके लिए G7 देशों ने एक बैठक की और एक ऐसा मंच तैयार करने का फैसला किया जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दों को डिस्कस किया जा सके। तब G20 की शुरुआत हुई। उन देशों की पहचान की गई जिनकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी, या जिनमें तेजी से बढ़ने की कैपेसिटी थी। सभी को एक मंच पर लाया गया।
2007 तक केवल सदस्य देशों के वित्त मंत्री इसकी बैठकों में शामिल होते थे। हालांकि 2007 और 2008 में पश्चिमी और धनी देशों में आई फाइनेंशियल क्राइसिस ने उन्हें मजबूर कर दिया कि वो बातचीत को राष्ट्राध्यक्षों के स्तर तक ले जाएं।
तब से हर साल सभी सदस्य देशों के नेता एक मंच पर आकर अहम मुद्दों को डिस्कस करते हैं। शुरुआत में अमेरिका ने इस बात का विरोध किया था। हालांकि समय की नजाकत को देखते हुए बाद में वो शिखर के सम्मेलन के लिए तैयार हुआ। G20 देशों का पहला शिखर सम्मेलन वॉशिंगटन डीसी में ही हुआ।
G20 का मंच भारत के लिए कितना फायदेमंद है?
वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार सत्येंद्र रंजन के मुताबिक G20 काफी बड़ा मंच था। 2007-2008 की फाइनेंशियल क्राइसिस के समय से इस संगठन की बैठकों का आयोजन राष्ट्रध्यक्षों के लेवल पर किया जाने लगा। इससे पहले इसकी सारी बैठकें फाइनेंस मिनिस्टर और सेंट्रल बैंकों के लेवल पर होती थीं।
जब भारत जैसे देशों का महत्व बढ़ा तो इसे शिखर सम्मेलन के लेवल पर लाया गया। जो धनी देश थे उन्होंने ये महसूस किया कि वो दुनिया की इकोनॉमी को अकेले नहीं चला सकते हैं। अब G20 देश दुनिया की 83% इकोनॉमी को कंट्रोल करते हैं। ये देश आपस में बैठकर ढंग की आर्थिक पॉलिसी बनाएं, एक दूसरे से सहयोग बढ़ाएं इसी मकसद से इस संगठन को बनाया गया था।
अब हालात ये हैं कि दुनिया फिर से बंट गई है। दुनिया का एक खेमा अलग ढंग से सोचता है, दूसरा अलग ढंग से। ऐसे में G20 देशों में सहमति बनना मुश्किल हो गया है। इस साल भारत में अब तक हुई G20 की बैठकों में से किसी में आम सहमति नहीं बन पाई है।
यूक्रेन का मुद्दा ऐसा है, जिसको लेकर रूस और चीन दूसरे देशों से सहमत नहीं हो पाते हैं। G20 ऐसा मंच बन गया है जहां कोई फैसला नहीं हो पाता है। पिछले साल इंडोनेशिया में भी नहीं हो पाया था। जब आम सहमति ही नहीं बन रही है तो आज इस मंच की प्रासंगिकता पर सवाल उठ गया है। ऐसे समय में भारत इसकी अध्यक्षता कर रहा है। इस संगठन की बैठक के अंत में एक साझा घोषणा पत्र जारी होता है, उस पर सभी देशों की सहमति होना जरूरी है।
भारत के पास चुनौती है कि वो इसके लिए सभी देशों में आम सहमति बनवा दे। अगर ऐसा हो सका तो ये भारत की बड़ी सफलता मानी जाएगी। नहीं तो फिर ये समझा जाएगा की एक आयोजन हुआ जिसका कोई मतलब नहीं था।
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